Follicular lymphoma in Hindi : फॉलिकुलर लिंफोमा क्या है इसकी सम्पूर्ण जानकारी

क्या होता है फॉलिकुलर लिंफोमा? : What is follicular lymphoma in Hindi?

फॉलिकुलर लिंफोमा (Follicular lymphoma in Hindi) एक तरह का कैन्सर होता है, जिसमें लिम्फ़सायट्स नामक सेल्ज़ लक्ष्य पर होती हैं। यह कोशिकाएँ, सफ़ेद रक्त सेल्ज़ होती हैं। यह शरीर के, रोग प्रतिरोधक  क्षमता या इम्यूनिटी में, एक अहम भूमिका अदा करता हैं। यह कोशिकाएँ, शरीर को इन्फ़ेक्शन या संक्रमण से बचाते हैं।

  • दो तरह के लिम्फ़ोमा होते हैं- हौजकिंस और ग़ैर-हौजकिंस लिम्फ़ोमा। यह दोनो अलग-अलग प्रकार के सफ़ेद रक्त सेल्ज़  पर असर डालते हैं।
  • फॉलिकुलर लिंफोमा, एक ग़ैर-हौजकिंस तरह का लिम्फ़ोमा होता है।
  • इस तरह के कैन्सर में, आपके वो सभी सफ़ेद रक्त कोशिकाएँ जिन पर असर पड़ा है, शरीर के काफ़ी सारे हिस्सों में फैल सकते हैं। 
  • अहम रूप से यह बोन-मैरो या अस्थि मज्जा और लिम्फ़ नोड्ज़ या लसिका ग्रंथि पर हमला करती हैं। लसिका ग्रंथि को बनाते हैं, आपके गर्दन में, छोटे-छोटे मटर की आकृति की गुत्थियाँ और हाथों में मौजूद रोग-प्रतिरक्षक पद्धतियाँ।
  • फॉलिकुलर लिंफोमा होने के बाद इन क्षेत्रों की रक्त कोशिकाएँ ट्यूमर बना देती हैं।
  • वैसे सामान्य रूप से, फॉलिकुलर लिंफोमा का उपचार नहीं हो पाता, मगर आप इसके साथ बिना किसी इलाज के साथ भी रह सकते हैं। वह इसलिए, क्योंकि बहुत समय तक यह पता ही नहीं चलता कि आप इसके मरीज़ हैं। यह कैन्सर इतने धीरे-धीरे बढ़ता है की आप कई साल बिना इलाज के रह सकते हैं। आपको इसके उपचार की ज़रूरत ही नहीं पढ़ती है।

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आइए अब हम बात करते हैं, दोनो फॉलिकुलर लिंफोमा और फॉलिकुलर हाइपर-प्लेज़िया, में अंतर की:

आइए हम देखते हैं दोनो बीमारियों के अंतर  पर:Follicular lymphoma in Hindi

पहले नज़र डालते हैं, इनके नोडल आर्किटेक्चर पर

  •  जहाँ हाइपर-प्लेज़िया में, नोडल आर्किटेक्चर को इस रोग में, बचा कर रखता है, वहीं फॉलिकुलर लिंफोमा, काफ़ी बड़े स्तर पर होता है। नोडल आर्किटेक्चर पर यह असर डालता है।
  • हाइपर-प्लेज़िया में, लिम्फ़ नोड्ज़ या लसिका ग्रंथियों में, यह कोर्टिकल भागों में होता है, पर ल्य्म्फोमिया में, यह दोनो हिस्सों, कोर्टेक्स और मेडुल्ला में, परस्पर तरीक़े से पहले बँट जाता है, और फिर समस्या शुरू होती है। 
  • हाइपर-प्लेज़िया में, कूप या फ़ालिकल्ज़ के, दोनो शेप मतलब आकार और आकृति में फ़र्क़ दिखता हैं, वहीं लिम्फ़ोमा में, क़रीब सभी के सभी, बड़े शेप के ही हो जाते हैं।
  • हाइपर-प्लेज़िया में जो प्रतिक्रिया का सेंटर होता है, उस पर हम नीयहान लगाकर उसे देख सकते हैं, पर लिम्फ़ोमा में ऐसा कुछ भी सम्भव ही नहीं हो पाता है।

किन लोगों को लिम्फोमा का खतरा होता है?

1- चिकित्सकों के  अनुभव के अनुसार , लिम्फोमा, 15 वर्ष से 40वर्ष, या फिर 55 वर्ष  से ज़्यादा  की उम्र में हो जाता है।

2- जिन  लोगों को पहले से ही एचआईवी (HIV) या एड्स का संक्रमण हो, या फ़ोर, उनका पहले से कोई ऑर्गन ट्रांसप्लांट यानी की अंग प्रत्यारोपण  हुआ हो, उन्हें लिम्फोमा होने के चांस बढ़ जाते हैं। ऐसा इस कारण से भी होता है, क्योंकि इन सभी रोगियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता यानी की इम्यूनिटी प्रॉसेस, कम हो जाती है।

3- इसके साथ एक और बिन्दु पर आपको ध्यान देना है, कि यदि परिवार में किसी भी व्यक्ति को लिम्फोमा हो चुका हो, मतलब यह  की, यह बीमारी आनुवांशिक या हेरेडिटेरी है, तो भी यह कैंसर आपको भी अपनी चपेट में ले सकता है।

फॉलिकुलर लिंफोमा के लक्षण: Symptoms of Follicular lymphoma in Hindi

लिम्फोमा के लक्षण, वैसे इतनी आसानी से दिखने वालों में नहीं होते,  लेकिन फिर भी कुछ संकेत होते हैं, जो हमें उस तरफ़ सोचने के लिए ढकेलते हैं। यही वो विशिष्ट संकेत होते हैं, जिनकी सहायता से हम इस  रोग का पता लगा सकते हैं। वह संकेत हैं ये:

  • लिम्फ नोड्स का सूजना 
  • खांसी होना या सांस लेने में कोई समस्या होना 
  • बुखार आना 
  • रात में सोते वक्त बहुत ज़्यादा पसीना आना
  • जल्दी थक जाना और अचानक से भार कम हो जाना
  • खुजली और जलन होना आदि
  • जींज़ पर दिखने वाले लक्षण-
  • यह ग़ैर-हॉजिंज़ का एक तरह  का कैन्सर होता है।
  • इस रोग में, जीन पर ‘कैरिक्टरिस्टिक ट्रान्स-लोकेशन’  यानी की एक ख़ास अनुवाद  ज़ाहिर से होता है, जो कि  14 से 18 के  बीच में ही होता है।
  • BCL-२ जीन का अधिक अभिव्यक्ति या ‘ओवर-इक्स्प्रेशन’ होता है ।
  • CD 5 का नेगेटिव होना एक और लक्षण माना जाता है।
  • कुछ नए फ़ीचर की मौजूदगी :

यह दो नए लक्षण नीचे दिए गए हैं:

  • सेंटरो-साइट्स 
  • सेंटरो-ब्लास्ट्स 

इसके ऊपर, पर इनकी ग्रेडिंग की जाती है। वह ग्रेडिंग हम यहाँ पर निम्न बिंदुओं में समझा रहे हैं। यह रहे वो:

ग्रेड-1: इसमें सेंटरो-ब्लास्ट्स की संख्या, 0-5 में हाई पावर फ़ील्ड में मिलते हैं।। इस ग्रेड में सेंटरों-साइट्स की संख्या अधिक होते हैं। इसमें छोटे, फूटे हुई फ़ालिकल  सेल्ज़ यानी की कूट कोशिकाएँ होती हैं।

ग्रेड-2: इसमें 6 से 15 संख्या में, हाई पावर फ़ील्ड में फ़ालिकल कोशिकाएँ मिलेंगी । यह ग्रेड सेंटरो-साइट्स और सेंटरो-ब्लास्ट्स के बीच की एक स्थिति जिसे ‘मिक्स्ड’ कहते हैं।

ग्रेड-3: इसमें 15 से ज़्यादा संख्या में, हाई पावर फ़ील्ड में मिलते हैं । इसमें पहले ग्रेड में , मिलने वाले सेंटरो-साइट्स’ से बिलकुल विपरीत , सेंटरो-ब्लास्ट्स ज़्यादा होंगे। इसमें बड़े बलस्टिक फ़ालिकल सेल्ज़ या कोशिकाएँ होती हैं। 

अब आइए देखते हैं की सेंटरो-साइट्स और सेंटरो-ब्लास्ट्स में क्या फ़र्क़  होता  हैं, इसे जानते हैं:

आकार: सेंटरो ब्लास्ट्स ज़्यादा बड़े होते हैं, और सेंटरो साइट्स तुलना में  छोटे होते हैं।

साइडोप्लैज़म– ब्लास्ट्स में पाया जाने वाला यह माध्यम होता है और साइट्स में यह बहुत कम होता है।

नूक्लीयसब्लास्ट्स के सेल्ज़ या कोशिकाओं के नूक्लीयस आकार गोल होता हैं और साइट्स में यह  असामान्य और फूटे हुए होते हैं।

क्रोमाटिन– जहाँ एक तरफ़ ब्लास्ट्स में खुले हुए क्रोमाटिन होते हैं, और वहीं दूसरी तरफ़, साइट्स में यह संकरे हुए होते हैं।

निदान या डायग्नोसिस:

चिकित्सक को इस बात को पक्का तरीक़े से पता लगाने के लिए, की रोगी को फॉलिकुलर लिंफोमा ही है, उसे एक बाइआप्सी करवानी पड़ती है। 

यदि हम ग़ौर से भी देखें, तब भी एक कैट स्कैन या ब्लड टेस्ट, यह बात  हम साफ़ तरीक़े से नहीं बता सकते, की यह कौनसी तरह का ग़ैर-हॉजिंज़ लिम्फ़ोमा है। 

यह भी मान्यता है की पंद्रह और प्रकारों में से एक होता है, फॉलिकुलर लिंफोमा। इसीलिए, एक विशिष्ट बाइआप्सी करवानी ही पड़ती है।

फिर इस रिपोर्ट को पड़ने और ढंगे से विश्लेषण करने  के लिए, एक कैन्सर विशेषज्ञ या ओनकोलोजिस्ट का अनुसंधान चाहिए ही होता है। उसके बाद, यह सही तरीक़े से बता देता है कि, मरीज़ को कौनसा रोग है या कौनसा कैन्सर है।

फॉलिकुलर लिंफोमा का उपचार: Treatment of Follicular lymphoma in Hindi

  • फॉलिकुलर लिंफोमा के उपचार के कई तरीक़े होते हैं। यह सबसे पहले देखकर जाँचा  जाता है कि रोगी को ‘लो लिम्फ़ोमा बोझ’ है या फिर ‘हाई लिम्फ़ोमा बोझ’
  • अगर  लिम्फ़ोमा बोझ कम या लो है इसका अर्थ, रोगी को बहुत ही न्यूनतम परेशानी है। उसके ख़ून की स्थिति भी क़रीब-क़रीब सामान्य है। उसके बाद, उसके  ख़ून की जाँच भी काफ़ी हद तक सही होती है। तब इनके फ़ीचर या लक्षण भी सही ही होते हैं।

पर दूसरा प्रकार वह है, जिनको उपचार की आवश्यकता होती है। कोई भी स्थिति जो इससे अधिक ख़राब होती है, उसमें मरीज़ के लिम्फ़, डरावने लक्षण दिखाने शुरू कर देते हैं। यहाँ पर आपके डॉक्टर का रोल बढ़ जाता है।

इस बीमारी से लड़ने के लिए, दो प्रमुख दवाइयों का उपयोग किया जाता है। वह दो दवाइयाँ हैं:

  •  क्लोरैम्बुसिल
  • सैकलोफ़ोसफ़मैड

क़रीब पच्चीस प्रतिशत  केसेज़ में यह देखा गया है, कि समय के साथ, रोगी  की वापसी  हो जाती है।

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Ruchi singh chauhan
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